कभी अलविदा न कहना - 1 Dr. Vandana Gupta द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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कभी अलविदा न कहना - 1

कभी अलविदा न कहना

डॉ वन्दना गुप्ता

सारांश

प्रस्तुत उपन्यास मुख्यतः प्रेम के धरातल पर लिखा गया है। संयुक्त परिवार में रह रही नायिका जब नौकरी करने दूसरे शहर में जाती है, तब बदलते परिवेश में किस तरह खुद को समंजित करती है। विभिन्न पात्रों के माध्यम से अलग अलग मनोवैज्ञानिक पहलुओं से गुजरता हुआ उपन्यास अपनी रोचक शैली और सुंदर शब्द शिल्प से पाठक का मन बांधने का प्रयास करता है। जिंदगी के विभिन्न सोपान पर दोस्ती और प्रेम के अलग अलग रंग... परिवार के सदस्यों में स्नेह, अपनत्व और ईर्ष्या के विभिन्न पहलू उजागर करने के साथ बदलते परिवेश में लड़कियों की शिक्षा और संस्कार में बदलाव को भी इंगित करने का प्रयास किया है। एक ही परिवार की दो बेटियों में स्वभावगत असमानता के साथ उनकी जिंदगी के उतार चढ़ाव का, शिक्षा दीक्षा का प्रभाव भी दर्शाने का प्रयास किया है। साथ में रह रही तीन सहेलियों की समानांतर प्रेमकहानी के माध्यम से प्रेम के अलग अलग स्वरूप और प्रेम में पड़ती युवा पीढ़ी के विचार प्रस्तुत किए हैं। उपन्यास में ट्विस्ट और टर्न्स भी हैं, और जिंदगी के कई रंग भी... कई मोड़ों से गुजरती हुई कहानी अंत में नायक द्वारा प्रेम का अनूठे ढंग से इजहार करने पर समाप्त होती है। मानवीय विचारों, सम्वेदनाओं और परिस्थितियों का सूक्ष्म विश्लेषण करती हुई कहानी लिखने में मैं कितनी सफल हुई, यह आप सभी पाठकों की प्रतिक्रियाओं से जानने की अपेक्षा है। सादर....

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1

कौन कहता है कि गुजरा वक़्त कभी लौटता नहीं..? कभी कभी कोई पल जिंदगी में ठहर सा जाता है और वक़्त गुजरता ही नहीं.. अब गुजरा ही नहीं तो लौटने की बात ही बेमानी है। लेकिन हम कितना भी चाहें, वक़्त को गुजरना ही होता है, गुज़र ही जाता है, बस कोई एक खास पल जिंदगी में रुक जाता है और जिंदगी चलती रहती है। पर वह एक लम्हा दिलोदिमाग में इस कदर जम जाता है कि कितना भी खुरचो... निकलता ही नहीं और अतीत की बंद खिड़की के काँच में से कुछ तस्वीरें दिख ही जाती हैं। वक़्त की गर्दिश में काँच धुंधला जाता है किंतु मेरी आदत है कि गाहे बगाहे उस धुंध को भी हटा ही देती हूँ, कभी खुशी मिलती है तो कभी गम और कभी कभी.......

"ये हमारी जिंदगी का स्वर्णिम काल है, ये दिन कभी लौटकर नहीं आने वाले... बाद में हम इन्हें याद करेंगे, आज को भरपूर जी लो... कल पता नहीं क्या हो..." अनिता हमेशा कहा करती थी और हम तीनों यानी कि मैं, अनिता और रेखा शिद्दत से आज को जीते हुए कल के हसीन सपनों में खो जाते थे। हम तीनों अलग अलग परिवेश में पले हुए उम्र के उस दौर से गुजर रहे थे, जब दिल में पलते सपने आंखों में उभरने लगते हैं और दिमाग उन सपनों को साकार करने की तदबीरें ढूँढने लगता है।

ये उन दिनों की बात है जब कंप्यूटर युग का आगाज़ होने को था। मोबाइल क्रांति नहीं आयी थी। बेटियों का नौकरी करना समाज में एक तरह से प्रतिबंधित था। कुछ स्वतंत्र सोच वाले अभिभावक ही बेटियों के सपनों को हौसले के पंख देते थे। परवरिश और परिवेश में जरूर थोड़ी उदारता बरती जाने लगी थी। बेटे और बेटी के लिए घर के अंदर अलग मापदण्ड नहीं थे, किन्तु घर के बाहर जरूर एक लक्ष्मण रेखा थी, जिसे पार करना नामुमकिन नहीं पर मुश्किल जरूर था। अनिता के घर का माहौल थोड़ा खुलापन लिए हुए था, रेखा और मैं लगभग एक जैसे परिवेश से आये थे। अनिता के दबंग स्वभाव से हम दोनों ही प्रभावित थीं और हमउम्र होते हुए भी हमारे घर की मुखिया अनिता थी। इसकी एक वजह और थी... अनिता घर में सबसे छोटी थी और रेखा और मैं भाई-बहनों में सबसे बड़े। अनिता के घर पर उसकी दीदी की हुकूमत के चलते उसे वहाँ मौका नहीं मिलता था और रेखा और मैं घर में बड़े होने से दुःखी थे। हमारी दबी छुपी भावनाएँ मुखरित होने लगी थीं और हम अपनी बदलती भूमिकाओं से खुश और संतुष्ट थे।

जिस तरह से लबालब भरी नदी तीव्र वेग से बहती है, वैसे ही हम तीनों भावनाओं के ज्वार से लबालब थे। पहली बार घर से बाहर, अलग शहर में हमारा अपना घर था, जहाँ हम अपनी मर्जी के मालिक थे। संस्कारों का बांध जरूर था, जो हमें मार्ग से भटकने नहीं देता था, फिर भी हम काफी उन्मुक्त महसूस करते थे। एक बात जरूर समझ में आ रही थी कि अब खुद निर्णय लेना होता था, तो हर पहलू पर काफी विचार विमर्श होता था। पहले अपनी बात मनवाने के लिए जो जिदें किया करते थे, वे कब और कहाँ गुम हो गयीं, पता ही नहीं चला।

"दीदी! आप सच में नौकरी जॉइन करोगी?" मेरी बहन विस्मित थी।

"हाँ, क्यों नहीं करूँगी?" मैंने उसके प्रश्न को हवा में उड़ाते हुए कहा।

"मेरा मतलब, दूसरे शहर में और फिर साड़ी पहननी पड़ेगी, मम्मी पापा राजी नहीं हैं, फिर भी....?" उसकी आंखें विस्फारित थीं।

"देख घर बैठे इतनी अच्छी नौकरी मिल रही है, मौका क्यों छोड़ूँ? मैंने इतनी मेहनत की है, हमेशा कक्षा में टॉप टू में रही हूँ.." कहते हुए मेरा एक और दर्द उभरा।

"अरे दीदी! यदि आपको टाइफाइड पलटकर नहीं होता तो आप इस बार भी फर्स्ट ही रहतीं, और फिर एक नम्बर ही तो कम है.. दुखी क्यों होती हो..."

"दुःखी क्यों न हूँ भला? इस एक नम्बर ने मेरा गोल्ड मेडल छीन लिया.. अब ये दूसरा मौका किसी को छीनने नहीं दूँगी।"

"हाँ ये दूसरा मौका ही तो है, पहला इतना अच्छा मौका तो तूने एवई गंवा दिया.." ताईजी वहीं बैठी हम बहनों की बातें सुन बीच में बोल उठीं। उनकी बात पर मुझे फिर गुस्सा आ गया... उनका बस चलता तो बी एस सी के बाद ही मेरी शादी करा देतीं, लाई भी तो थीं, अपनी भाभी के भाई के बेटे का रिश्ता... उन दिनों को याद कर मेरा मन फिर कसैला हो गया... वो तो अभी मैं नई नौकरी के उत्साह को कम नहीं करना चाहती थी, इसलिए उनकी बात को टाल दिया... "ताईजी! आपको खुश होना चाहिए कि आपकी बेटी इतनी अच्छी नौकरी करने जा रही है... शादी तो फिर हो जाएगी, लेकिन तब आप मेरी शादी करवा देतीं तो आज मैं इतनी पढ़ाई कर जहाँ पहुँची हूँ, वहाँ कभी नहीं पहुँच पाती.."

"लाडो आज भी तू जा तो उसी शहर में रही है, तब वहाँ सेठानी बनी रहती, अब उसी शहर में अपना रहने का ठिकाना ढूंढना पड़ेगा.... मेरी बात मानी होती तो महलों में राज करती, कितना बड़ा बंगला है उनका.... तब तो शादी नहीं होने की मन्नत की थी और फिर रंजन की सगाई दूसरी जगह होने पर प्रसाद बांटा था। मैं तो तभी समझ गयी थी कि छोरी गुल खिलाएगी... अपने खानदान में किसी लड़की ने नौकरी नहीं की और तू......."

"मेरी विशु समझदार है, न गलती की, न करेगी.." अच्छा हुआ अम्मा आ गयीं और ताईजी का प्रलाप रुक गया। अम्मा की लाडली पोती होने से वे हमेशा मेरा पक्ष लेती थीं। तीन साल पहले भी उनके समर्थन से मैं ताईजी के मायके वाले रईस परिवार की बहू बनने से बच गयी थी और आज भी उन्हीं के कहने से पापा ने मन मारकर मुझे सर्विस करने की अनुमति दी थी।

पापा के साथ ही जॉइन करने गयी थी। नौकरी मिलने की खुशी से जो मन भर गया था, जॉइन करने के बाद वही रीतने लगा.... क्यों??

क्रमशः.... 2